ज़िंदगी मे परेशानियों का आना-जाना तो लगा ही रहता हैं,और ऊपर वाला हम सबको उन परेशानियों से मुक्त होने की काबिलियत भी देता है।
मगर कुछ परेशानियां पीड़ा के रूप में आती हैं जैसे बंद दरवाजे के नीचे से कैसे चीटियाँ घुस आती है कमरे में उसी तरह ये पीड़ाएं भी दिल के उन कोनों में आ के बैठ जाती है जहाँ से उन्हें निकाल पाना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है।
ये बेवज़ह नहीं आती..बेवजह कुछ भी नहीं होता यहाँ हर ऐक्शन का रिएक्शन होना प्रकृति का नियम हैं।
परेशानी और पीड़ा में बेहद अंतर हैं हमें जब किसी बात से परेशानी होती है तो हम उसका इलाज ढूंढते है सलाह लेते है उसपे काम करते है या फिर उसके बारे में सोचना बंद कर देते है, मगर पीड़ा हमारे मन पे लगे घावों को अंदर ही अंदर कुरेदती रहती हैं।
किसी पीड़ा से गुज़र रहे लोग कभी रोते नहीं वो एक serious मुस्कान के साथ खामोश रहते हैं।
बेवज़ह के खयालों के साये में रहते हुए वक़्त की डायरी में जाने कितने रतजगे दर्ज किए जाते हैं उनकी ज़िन्दगी में और आंसुओं का सारा हिसाब तकिए बड़ी आसानी से सोक लेते हैं अपने अंदर।
ना रहा जाए ना सहा जाए जैसी हालत में फिर ऐसा भी वक़्त आता है जब साँसें भी बोझ लगने लगती हैं किसी अनचाहे डर के इतने भयानक खयाल मंडराते है सर पे की मन करता है किसी कोठरी में जा के दुबक के बैठ जाये जहाँ ये खयाल पीछा करते हुए पहुच ही ना पाए,मगर मन की कोई नहीं सुनता।
जाहिर है पीड़ा इतनी गहरी है तो वजह भी गहरी रही होगी और शायद इन्ही पीड़ाओं को डिप्रेशन या एंग्जायटी कहा गया है जो एक हँसते-खेलते इंसान को ज़िंदा लाश की तरह बना देता है जिसे ना हँसने की सुध होती है ना रोने से करार भर आता।
खामोशी होंठो से ऐसे लिपटी होती है जैसे कोई नवजात बच्चा माँ से लिपटा हुआ हो।
और ज़िन्दगी में आए ऐसे वक़्त को डायरी में सबसे बुरा दौर लिखने में कोई हिचक नहीं होती।
अगर गुज़रे हो कभी इसी दौर से या गुज़र रहे हो तो सुनो..लिख देना इस डायरी में हर उस पल को जिसने तुम्हे जज़्बाती तौर पर नोच खाया हो, जिसने छीन लिया तुम्हारे हिस्से का सारा सुकून और तुम्हे अपनी ही नज़रों में बेगैरत बना के रख दिया हो, लिख देना हर उस इंसान के बारे में जिसने तुम्हारी सादगी और सरलता को अपने पाखंड से रौंद दिया हो, लिख देना सब उस डायरी में और वो डायरी तुम जला देना।
क्योंकि अब तुम्हारा सबसे बेहतरीन दौर आने वाला हैं और आने वाले सुनहरे पलों में बीती कड़वी यादों का कोई काम नहीं..
रात का बीत जाना तय है
और सुबह का होना भी।
अगर पीड़ा असहनीय मिली है तो उससे उभरने की ताकत भी हमारे अंदर ही हैं अगर उस सबके बावजूद भी हम नहीं टूटे और साँसें चल रही हैं तो यकीन मानिए ऊपर वाला हमसे कुछ बेहतरीन करवाने की कोशिश में हैं।
लोहे को आकार देने के लिए उसे कई हथौड़ों की मार का सामना करना पड़ता हैं।
अपने सही आकार को पाने के लिए जीवन में तपना भी होगा और खपना भी होगा।
हर इंसान का अपने हिस्से का खुद का एक सफर होता है जिसे उसे खुद ही पार करना होता है हमारे दोस्त और परिवार मौलिक और नैतिक रूप हमारी मदद कर सकते है मगर उससे उभरने के लिए उससे बाहर आने के लिए हमें खुद ही उससे लड़ना पड़ेगा।
वक़्त तो लगेगा मगर यकीन रखना बस उसी पल के बाद एक नई डायरी तुम्हारा इंतज़ार कर रही होगी।
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