Wednesday, 13 November 2019
ज़िंदगी का वह कमरा.....

लगता हैं गया नहीं वहा कोई,
शायद ताला लगाकर छोड़ दिया हैं उसे कुछ साल पहले |
शायद कुछ मकड़ी के जाल से हैं वहां,
बहुत सारी धूल भी, और सामान भी ऐसे ही अस्त व्यस्त पड़ा हैं |
कुछ तस्वीरें पड़ी हैं जमीन पर, कुछ के तो फ़्रेम टूटे हैं और कांच बिखरे हुए हैं फर्श पर|
एक अलमीरा हैं, जो गिरी पड़ी हैं मानो कोई भूकंप आया था कभी सालो पहले,
और फिर तुमने भी जरूरी नहीं समझा उसे सीधा करना |
उल्टा ढक दिया उसे एक चादर से, जो अब मैली तो हो गई हैं, और बदबू आती हैं उसके पास जाने से |
मैं उस कमरे की चाबी,
जो पड़ी हैं शायद तुम्हारे किसी बड़े से सपने के नीचे, को ढुंढना चाहता हूं मैं |
वहा जाकर ज़रा सी सफाई कर एक बार फिर से कुर्सी, मेज और सोफे की अपने अपने जगह रखना पर चाहता हूं |
जो अलमीरा जिसे तुमने सीधा नहीं किया सालो से,
उसके कपड़े को बाहर कूड़ेदान में डालकर, ज़रा सा अपना हाथ लगवाकर सीधा करना चाहता हूं |
और जो पड़ी हैं ना, कुछ रेत से सनी हुई, धुंधली धुंधली सी पुरानी तस्वीरें, उन पर तहज़ीब से उठाकर, टूटे हुए कांच के टुकड़ों से बचते बचाते |उन पर थोड़ा से पानी से पोंछा मारकर, दीवार पर कुछ नई कीलों पर लगाना चाहता हूं |
मैं तुम्हारी ज़िंदगी के उस कमरे में जाना चाहता हूं जो अकेला पड़ा हैं सालो से |
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