Wednesday, 13 November 2019

क्या तुम मेरी किताब बनोगे?


मैं तुम्हे किसी किताब सा पढ़ना चाहती हूं, cover से cover तक|

धीरे धीरे एक एक पन्ना पलटकर, इतना धीरे कि आखिरी पन्ना मैं, आखिरी सांस के साथ पढ़ सकूं|
हर पन्ने को अंगुलियों से स्पर्श कर, मासूम सी खुरदराहट को महसूस करना चाहती हूं|
हर पलटते पन्ने की सहमी सहमी सरसराहट को सुनना चाहती हूं।

हर पन्ने की हर एक line के अर्थ की बारीकियों में डूबना चाहती हूं|
कुछ गंभीर सी lines के अर्थ का अनर्थ कर, कुछ खुशनुमा से रंग उड़ेलना चाहती हूं|
इसी बड़ी सी किताब की कुछ पुरानी lines चुराकर, हमारे लिए कविता लिखना चाहती हूं|

Lines
जो जरूरी हो जीवन में, उन्हें अपने कलम से underline करना चाहती हूं |
और कुछ कुछ भागों में महज एक सहज सी नजर मारकर निकल लेना चाहती हूं |
जो अल्फ़ाज़ समझ नहीं आए मुझे, मैं बैठ तुम्हारी बाहों में, वो तुमसे समझना चाहती हूं |
कुछ पन्नों की हल्की हल्की बुदबुदाहट को देख, ज़ोर से हसना चाहती हूं |

पढ़ने में शायद मुझे जरा ज्यादा वक़्त लगे पर,
जानने भी तो हैं तेरे हजारों किरदार,
और मैं तो तेरे हर किरदार की कदर करना चाहती हूं |
कुछ चिपके हुए पन्नो को, पास रखी एक scale से तहज़ीब से, सुलझाना चाहती हूं,
शायद वैसे ही जैसे तुम मेरे बालों को सुलझाते हो

जब तुम्हारे सर पर चांदी के बाल होंगेऔर तुम्हारे पोपले से गाल होंगे,
सलवटों सी जुरिया हर तरफ होंगीं
मैं खोल इस किताब के पुराने पन्नो की सलवटो से तुम्हारे चेहरे पर यौवन की चमक वापस लाना चाहती हूं|

मैं तुमसे इश्क़ करना चाहती हूं, आदि से अंत तक, और शायद उससे भी परे|

क्या तुम मेरी किताब बनोगे?


वो बारिश ही तो था............



हां, वो बारिश ही तो था
जो आसमान से उतर के आया था
और ज़िन्दगी के सुखे पड़े बगीचे में
खिला गया कुछ रंग बिरंगे फूलफिर लुटाकर अपना सारा खजाना,थम गया वो एक दिन

पर हां, अभी कुछ बूँदे अटकी हैं, यादें, पत्तो में
मैं इन मोतियों को सजना चाहती हूँ, इन्हें frame करना चाहती हूँ।
पर धीरे धीरे ये टपक रही हैं,
और ये निर्दयी धूप भी तो उड़ा रही हैं इन्हें।
फिर गुम हो जाएंगी कहीं हवाओं में, मिलेंगे नहीं
अब तो मौसम भी खराब है
मुझे डर हैं कोई हवा का झोंका
एक झटके में ना गिरा दे सारी बूंदें|


बारिश की तरह बरसते रहो, हम पर.... मिट्टी की तरह हम भी, महकते चले जायेंगे....!!!!



When the House Grows Quiet